कौन भूल सकता है क्रांतिदूत भाई परमानंद को

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– रमेश शर्मा

सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद को कौन भूल सकता है। चार नवंबर, 1870 को झेलम जिले के करियाला गांव में जन्मे भाई परमानंद ने काला पानी की सजा काट रहे भगत सिंह और राजगुरु जैसे क्रांतिदूत तैयार किए। करियाला गांव अब पाकिस्तान में है। भाई जी के परिवार की पृष्ठभूमि राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान की रही है । गुरु तेगबहादुर के साथ अपने प्राणों की आहुति देने वाले भाई मतिदास इन्हीं के पूर्वज हैं । उनके परिवार की ऐसी कोई पीढ़ी नहीं, जिसने राष्ट्र के लिए बलिदान न दिया हो । पिता ताराचंद ने किशोरवय में 1857 की क्रान्ति के संदेश वाहक के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस क्रांति की विफलता के बाद वे आर्य समाज से मिलकर सांस्कृतिक गौरव जागरण के काम में लग गये थे । इसलिये राष्ट्र और संस्कृति के समर्पण के संस्कार भाई परमानंद को बचपन से मिले। भाई परमानंद ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी परमानंद आर्य समाज और वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक रहे हैं। एक आदर्श शिक्षक, इतिहास, संस्कृति और साहित्य मनीषी के रूप में भी उनकी ख्याति रही है। सरदार भगत सिंह, सुखदेव, पं. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, करतार सिंह सराबा जैसे असंख्य राष्ट्रभक्त युवकों के वे प्रेरणा स्त्रोत हैं।

भाई परमानंद ने हिंदी में भारत का इतिहास लिखा। इतिहास लेखन में वो राजाओं, युद्धों और केवल जीवनवृत्त विवरण को ही प्रधानता नहीं देते । वो कहते थे कि इतिहास में मानवीय भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति गौरव एवं सभ्यता की गुणवत्ता को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। 1902 में भाई परमानंद ने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और लाहौर के दयानंद एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। उनकी भारतीय प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने उन्हें भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अक्टूबर 1905 में अफ्रीका भेजा। डर्बन में भाई जी की गांधीजी से भेंट हुई। अफ्रीका में वो तत्कालीन प्रमुख क्रांतिकारियों सरदार अजीत सिंह, सूफी अंबाप्रसाद आदि के संर्पक में आए। इन क्रांतिकारी नेताओं से संबंध तथा क्रांतिकारी दल की कार्रवाई पुलिस की दृष्टि से छिप न सकी। अफ्रीका से भाई परमानंद लंदन चले गए। वहां उन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे। वो इन दोनों के सम्पर्क में आये और एक संकल्प लेकर 1907 में भारत लौटे ।

लौटकर दयानन्द वैदिक महाविद्यालय में शिक्षण कार्य के साथ वे युवकों में राष्ट्र और सांस्कृतिक गौरव बोध जगाने लगे। इसी बीच सरदार अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय से उनकी निकटता बढ़ी। इससे वे पुलिस की नजर में आ गये । 1910 में पुलिस ने उन्हें लाहौर से गिरफ्तार कर लिया किन्तु कोई आरोप प्रमाणित न हो सका और वे जमानत पर रिहा कर दिए गए। रिहाई के बाद भाई परमानंद अमेरिका चले गए। वहां जाकर प्रवासी भारतीयों के बीच वैदिक धर्म के प्रचार अभियान में जुट गए । वहां उनकी भेंट प्रख्यात क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुई। लाला भारत की स्वाधीनता के लिए अभियान चलाने और संगठन तैयार करने की योजना पर काम कर रहे थे। उन्होंमने लाला हरदयाल को भी अपने दल में सम्मिलित कर लिया । इस दल में करतार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले जैसे कार्यकर्ता थे। सबने भारत की स्वाधीनता के लिए अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया। भाई परमानंद पुनः 1913 में भारत लौटे। क्रांति के लिये युवकों की टोली तैयार करने में जुट गये। उन्होंने इसके लिये देशभर की यात्राएं कीं तथा यात्रा के बीच ही 1914 में ‘तवारिखे-हिन्द’ नामक ग्रंथ की रचना की। यह इतिहास की प्रेरणादायी पुस्तक है ।

इस दौरान क्रांति करने के उद्देश्य से गदर पार्टी का गठन किया गया। वह इस पार्टी के अग्रणी नेताओं में थे। उन्होंने पेशावर में क्रांति के नेतृत्व का दायित्व स्वयं लिया । इसकी भनक पुलिस को लगी और भाई परमानंद 25 फरवरी 1915 को गिरफ्तार कर लिये गये । उनके विरुद्ध अमेरिका तथा इंग्लैंड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करने जैसे आरोप लगे और फांसी की सजा सुना दी गई। इसकी प्रतिक्रिया देशभर में हुई। पुनर्विचार याचिका भी लगी और फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल गई। दिसंबर, 1915 में अंडमान जेल भेज दिया गया। वहां उन्हें अमानवीय यातना दी गई । इस दौरान उनकी पत्नी भाग्यसुधी ने धनाभाव के बावजूद स्वाभिमान और साहस के साथ अपने परिवार के पालन-पोषण किया।

अंडमान की काल कोठरी में भाई परमानंद ने “मेरे अन्त समय का आश्रय” ग्रन्थ की रचना की। जेल में बंदियों पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों के विरुद्ध भाई परमानंद ने दो महीने तक भूख हड़ताल की । गांधी जी को जब काला पानी में अमानवीय यातना की सूचना मिली तो उन्होंने 19 नवंबर 1919 के “यंग इंडिया” के अंक में एक लेख में इन यातनाओं की भर्त्सना की। उन्होंने भाई परमानंद की रिहाई की भी माग की। प्रथम विश्व युद्ध के संदर्भ में भारतीय जेलों में राजनीतिक बंदी रिहा किए गये भाई जी भी 20 अप्रैल 1920 को काला पानी से मुक्त कर दिए गये ।

अंडमान जेल के पांच वर्षों की यातना पर भाई परमानंद ने “मेरी आपबीती” नामक पुस्तक की रचना की। उसका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े होते हैं। इनका उल्लेख प्रो. धर्मवीर द्वारा लिखित पुस्तक “क्रांतिकारी भाई परमानंद” ग्रंथ में है। जेल से मुक्त होकर भाई परमानंद ने पुन: लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। लाला लाजपतराय उनके अनन्य मित्रों में थे। उन्होंने राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना की तो उसका कार्यभार भाई परमानंद को सौंपा। यहीं भगत सिंह व सुखदेव आदि पढ़ते थे। भाई परमानंद ने उन्हें सशस्त्र क्रांति के यज्ञ में आहुति देने के लिए प्रेरित किया। भाई जी ने “वीर बन्दा वैरागी” पुस्तक की रचना की। यह पूरे देश में चर्चित रही। इसी बीच असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ । लेकिन इस आंदोलन के साथ खिलाफत आंदोलन के जुड़ने का भाई परमानंद ने कड़ा विरोध किया। लेख लिखे। सभाएं भी कीं। इसकी प्रतिक्रिया इतनी तीव्र हुई कि उन्होंने हिन्दू संगठन के महत्व पर बल दिया और “हिन्दू” पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस पत्र में देश को खंडित करने के षड्यन्त्रों को उजागर किया।

भाई परमानंद ने 1930 में अपने एक लेख में बाकायदा यह चेतावनी भी दी थी कि मुस्लिम नेताओं का उद्देश्य मातृभूमि का विभाजन कर नये देश का निर्माण करना है । बाद में भाई परमानंद हिंदू महासभा में सम्मिलित हो गए। 1933 में हिंदू महासभा के अजमेर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए। अंततः भाई जी की आशंका समय के साथ सही साबित हुई और भारत का विभाजन हो गया । यह वेदना उनके हृदय में इतनी गहरी हुई कि वे बीमार पड़ गये और आठ दिसंबर 1947 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। मध्य प्रदेश के राज्यपाल रहे डॉ. भाई महावीर उनके चिरंजीव थे। वे भी जीवनभर अपने पिता के पदचिह्नों पर चलकर राष्ट्र और संस्कृति के लिये समर्पित रहे। भाई परमानंद की स्मृति को बनाये रखने के लिये दिल्ली में एक व्यापार अध्ययन संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किया गया है। 1979 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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