सनातन धर्म है गांधी के हिंद स्वराज का मूल

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– प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल

महात्मा गांधी की पहचान विश्व मानवता को प्राण देने के लिए निरंतर संघर्षरत एक ऋषि और राजनेता की है। गांधी के समस्त तप को हिंद स्वराज से अलग होकर के नहीं समझा जा सकता है। वस्तुत गांधी की छोटी किताब धरती पर रामराज्य लाने की अवधारणात्मक प्रस्तुति है। यह पश्चिमी जीवन सृष्टि के प्रतिकार में एक ऐसी सनातन पद्धति का प्रस्ताव है जिसका उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज और समाज दोनों ही की निर्मिति है। गांधी की हिंद स्वराज की अवधारणा एक राजनैतिक दर्शन न हो करके संपूर्ण संस्कृति को अभिलक्षित, युग की जरूरत के अनुरूप निर्मित और प्रतिपादित संस्कृति दर्शन है।

आधुनिकता के कथित खाते में और व्यक्ति राज्य के बीच अन्य सभी सहज यात्रा संस्थाओं के समापन की घोषणा को उत्तर आधुनिकता कहा जा रहा है। किंतु विश्व के वैचारिक इतिहास में गांधी पहले उत्तर आधुनिक हैं जिन्होंने आधुनिक सभ्यता को युद्ध और यांत्रिकता से उपजी हुई राक्षसी सभ्यता कहा था। इसके खात्मे की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए समकालीन उत्तर आधुनिकता के विपरीत वे एक ऐसी देवी सभ्यता के सृजन का रास्ता हिंद स्वराज के माध्यम से संपूर्ण विश्व को दिखाते हैं जिसमें यांत्रिकता और आधुनिकता की आपाधापी में त्रस्त मनुष्य और वसुधा दोनों को सुख और मुक्ति की प्राप्ति हो सके।

यद्यपि कि गांधी के जीवन काल में हिंद स्वराज पर कोई अमल न हुआ जिसको गांधी ने स्वयं भी स्वीकार किया है तथापि गांधी इस पर अटल है। उनका विश्वास था कि भारत जब राजनीतिक आजादी प्राप्त कर लेगा तो हिंद स्वराज के अनुरूप सभ्यता के निर्माण में सार्थक रूप से प्रगति होगी। किंतु गांधी के बाद आजाद भारत में उन्हें चित्रों एवं श्रद्धांजलि तक सीमित कर दिया गया। लोक निर्मिति का जो यत्न भारत की सनातन सभ्यता तथा रामराज्य के आलोक में होना चाहिए था वह नहीं हो सका। गांधी के विचार को भारतीय व्यवस्था में उतारने के स्थान पर गांधी दर्शन और हिंदू दर्शन के बीच विरोध को रेखांकित कर वामपंथी यांत्रिक समाज और सभ्यता की निर्मित के प्रयास ही सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा था। नकल पर आधारित नगरीकरण, औद्योगिकरण, राज्य का व्यक्ति जीवन पर नियंत्रण तथा पूंजीवादी साम्यवाद के शंकर व्यवस्था में भारतीय समाज जीवन को अनेक प्रकार की विसंगतियों से भर दिया और विभ्रम यहां तक हो गया कि भारत अपने मूल को भूल गया।

दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक गांधी के प्रयास केवल नागरिक स्वतंत्रता सामान्य पर केंद्रित आजादी के आंदोलन के प्रयास नहीं है। अपितु अपने समस्त यत्न और आंदोलन के द्वारा वे एक ऐसे धर्म राज्य की कल्पना करते हैं जिसमें व्यक्ति जीवन और राष्ट्र जीवन दोनों में अहिंसा और सत्य आचार का केंद्रीय तत्व बने। अहिंसा और सत्य को हिंद स्वराज की प्राप्ति के एक मात्र रास्ते के रूप मान्य करने का गांधी विचार सनातन धर्म है ही नि:सृत है। गांधी उन्ही सनातन मूल्यों को हिंदू स्वराज या नई विश्व व्यवस्था की निर्माता के मौलिक तत्वों के रूप में स्वीकार करते हैं जो सनातन धर्म में धर्म के लक्षण के रूप में प्रतिपादित किया गया है। सत्य, अहिंसा, स्वच्छता,अपरिग्रह अस्तेय, अनसक्ति आदि जो गांधी मूल्य के रूप में ख्यात है वे सब सनातन धर्म ही है।

यह सर्वज्ञात है कि गांधी आस्था से वैष्णो थे और भागवत की परंपरा में प्राप्त सत्यं परम धीमहि की अवधारणा को ही सर्वत्र धर्म और नीति के रूप में प्रतिष्ठित करने का यंत्र आजीवन करते रहे। गांधी के एकादशी व्रत सत्य, अहिंसा, परिग्रह, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि की मूल भित्ति सनातन ही है। गांधी का धर्म इस दृष्टि से भी सनातन धर्म की निरंतरता ही है कि इसमें आत्मा पर बहुत बल दिया गया है। आत्मशोधन, आत्म परिष्कार आत्मबोध के अंतर इनका विस्तार समाज राष्ट्र और विश्व तक करना ही गांधी का धार्मिक यत्न है। व्यक्ति के जीवन में इन मूल्यों की स्वीकारता धरती को धर्म राज्य ऐश्वर्या राज्य के रूप में परिवर्तित कर सकता है यह गांधी का ग्रह विश्वास और उन्हें इसकी प्रेरणा जहां श्रीमद् भागवत से प्राप्त होती है वहीं इसका व्यावहारिक स्वरूप उन्हें गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में दिखाई देता है। रामराज्य की स्थापना का स्वप्न दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मुक्ति प्राप्त करना मात्र ही नहीं है अपितु एक ऐसी विश्व व्यवस्था की स्थापना है जिसमें सभी जन धरती की समस्त उपलब्धियों का एक समान उपयोग कर सकें। सब की जरूरतें पूरी हों किंतु किसी में अधिकाधिक प्राप्त करने का लालच ना रहे।

हिंद स्वराज में गांधी सभ्यता और असभ्यता का भेद नीति धर्म के आधार पर करते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सभ्यता आचार व्यवहार की वह रीति है जिसमें मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन करें। गांधी की सनातन दृष्टि में एक परिष्कारपरक निरंतरता है जिसको इंगित करते हुए वह कहते हैं कि काल के विविध आघातों से इसमें दोष आए हैं किंतु यह दोष भारत की पुरानी सभ्यता के दोष नहीं है। बल्कि हमारी सभ्यता में इन दोषों को दूर करने के प्रयत्न सदा होते रहे हैं और होते रहेंगे। गांधी के चिंतन के आलोक में सनातन के खात्मे और और मूलोच्छेद का आह्वान करने वालों को यह कहा जा सकता है कि यह देश गांधी और बुद्ध का देश है और सभ्यता सत्य अहिंसा और नीति पर आधारित है वहीं भारत का धर्म है और यह सनातन धर्म ही है।

1909 में ही गांधी इस प्रकार की पूर्ति वालों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हिंदुस्तान का हित चाहने वालों को चाहिए की इस तत्व को समझकर, इसमें श्रद्धा रखकर जैसे बच्चा मां की छाती से चिपका रहता है वैसे ही अपनी पुरानी सभ्यता से चिपके रहें। गांधी की यह दृष्टि सनातन को आवश्यक परिष्कारपूर्वक निरंतर बनाए रखने और विकसित करने की दृष्टि है।

आचार संबंधी व्यवस्थाओं को गांधी ने भारत की सनातन सभ्यता दृष्टि की विशेषता माना था। यहां मतभेद का होना आवश्यक किंतु मतभेदों को चर्चा वार्ता एवं एक दूसरे की समझ विकसित कर सनातन धर्म मूल्य के आधार पर शमित करना ही सभ्यता धर्म है। यही धर्म सनातन है और सभ्यता धर्म का युगानुरूप प्रकटीकरण है। प्रकटीकरण के साधनों के बदलने से मूल तत्व नहीं बदलता है।

मूल तत्व को समाप्त कर भारत को नहीं बचाया जा सकता है। इसीलिए गांधी सनातन धर्म दृष्टि के परिष्कारपूर्वक उसे जीवन में उतारते हुए भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को सच्चे स्वराज की स्थापना तक अनवरत चलते रहने की बात करते हैं। इसलिए भारत को राजनीतिक आजादी प्राप्त होने और अंग्रेजों के चले जाने के बाद अंग्रेजीयत अर्थात पश्चिमी सभ्यता दृष्टि के खात्मे में की भी बात गांधी कहते हैं और स्पष्ट रूप से यह घोषित करते हैं कि हिंदुस्तान का सही स्वराज उसका स्वधर्म पर खड़ा होना है। जो राजनीतिक उपनिवेश से मुक्ति तक सीमित नहीं है अपितु मानसिक स्वराज, वैचारिक स्वराज की प्राप्ति और उसके माध्यम से धर्माधारित राष्ट्र और समाज के निर्माण में पूर्णता को प्राप्त करता है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के निवर्तमान कुलपति एवं दर्शनशास्त्री हैं। )

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