RSS के वरिष्‍ठ प्रचारक श्री रंगा हरि का देवलोकगमन

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-डॉ. आनंद सिंह राणा

कोच्चि । राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और पूर्व अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख आर. हरि का र‎विवार को यहां ‎निजी अस्पताल में ‎‎निधन हो गया है। उनके ‎‎निधन से आरएसएस के लोगों में शोक की लहर व्याप्त हो गई। वह 93 वर्ष के थे। उनका अंतिम संस्कार सोमवार को इवर मठ में किया जाएगा। उनका जन्म पांच दिसंबर 1930 को आरएसएस समर्थक रंगा शेनाई और पद्मावती के यहां पुत्र के रूप में त्रिपुनिथुरा में पुलेपाडी के पास हुआ था।

उल्‍लेखनीय है ‎कि महात्मा गांधी की 1948 में हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के सिलसिले में उन्हें पांच महीने की जेल हुई थी। श्रीआर आर हरि ने कोच्चि के सेंट अल्बर्ट हाई स्कूल में पढ़ाई की और महाराजा कॉलेज, एर्नाकुलम से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह 1951 में आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्य बन गए। वह 1990 अखिल भारतीय सह बौधिक प्रमुख बने और वर्ष 1991 में उन्हें अखिल भारतीय बौधिक प्रमुख के रूप में पदोन्नत किया गया।

उन्होंने 75 वर्ष के उम्र में सभी आधिकारिक कर्तव्यों से इस्तीफा दे दिया और अगले दो वर्षों तक कुछ विशेष कार्यभार संभालते रहे। मलयालम, कोंकणी, तमिल, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, बंगाली और असमिया जैसी 10 भाषाओं के जानकार आर हरि ने विभिन्न भाषाओं में लगभग 60 किताबें भी ‎लिखी हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद का उक्त मंत्र यही संदेश देता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठतम और वरेण्य स्वयंसेवक स्व के अनुगायक श्री रंगा हरि जी अमर रहेंगे। यद्यपि आज उनका पार्थिव शरीर नहीं रहा परंतु उनकी आत्मा सदैव देवलोक से हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी।यद्किंचित यह भी कि पार्थिव शरीर भी पंच तत्वों में मिलकर आपकी सुगंध देता रहेगा। सनातन धर्म पुनर्जन्म में अगाध आस्था रखता है, इसलिए श्री हरिहर से प्रार्थना है कि शीघ्र ही श्री रंगा हरि जी को पुनः भारत भेजने की दया करें।
उनके बारे में विस्‍तार से बात करें तो श्री रंगा हरि को संघ के स्वयंसेवक हरि ‘एट्टन’ (बड़े भाई) या हरि जी के नाम से भी जानते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ परिवार और उसके विचारों के प्रचार को समर्पित कर दिया। श्री रंगा हरि का जन्म 5 दिसंबर 1930 को केरल के त्रिपुनिथुरा गांव में हुआ था। 13 साल की उम्र में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने। सन् 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगाए जाने के दौरान दिसंबर सन् 1948 से अप्रैल सन् 1949 तक सत्याग्रही के रुप में कन्नुर जेल में बंद रहे।

स्नातक करने के बाद संघ के प्रचारक बने। केरल के प्रांत प्रचारक, 1990 में अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख, 1991 से 2005 तक बौद्धिक प्रमुख रहे। इस दौरान एशिया और आस्ट्रेलिया में संघ के कार्य को देखा। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें संस्कृत, कोंकणी, मलयालम, हिंदी, मराठी, तमिल, अंग्रेजी भाषा में लिखी। गुजराती, बंगाली और असमी भाषा के भी अच्छे जानकार थे। उनकी सुप्रसिध्द पुस्तक “भारत के राष्ट्रत्व का अनंत प्रवाह” महाशिवरात्रि, युगाब्द – 5121 तदनुसार फरवरी 2020 में प्रकाशित हुई। यह राष्ट्रत्व की गीता है। उन्होंने इसमें लिखा है कि “मैंने जान – बूझकर ‘राष्ट्रत्व’ शब्द को स्वीकारा, क्योंकि वही राष्ट्र की अस्मिता को व्यक्त करता है। राष्ट्र संबंधित चार शब्द हैं – राष्ट्र, राष्ट्रत्व, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता। इनमें राष्ट्र का स्वत्व है राष्ट्रत्व। राष्ट्र से जात या राष्ट्र संबंधित है राष्ट्रीय। उस राष्ट्रीय की वृत्ति या प्रकृति है राष्ट्रीयता। अंग्रेज़ी में भी इसी प्रकार के चार शब्द हैं – Nation, Nationhood, National, Nationalism.

मेरे विचार से, ऐंसा कभी-कभी होता है, जब कोई असाधारण आत्मा सामान्य स्तर से ऊपर उठकर ईश्वर के विषय में अधिक गहराई से प्रति संवेदन करती है, और देवीय मार्गदर्शन दर्शन के अनुरूप वीरतापूर्वक आचरण करती है, ऐंसी महान आत्मा का आलोक अंधकारमय और अस्त-व्यस्त संसार के लिए प्रखर दीप का कार्य करती है, श्री रंगा हरि जी की आत्मा इसी कोटि की उच्चतर मानक है। परम श्रद्धेय आदरणीय श्री रंगा हरि जी के कृतित्व, व्यक्तित्व और वक्तृत्व के लिए श्रीयुत रामावतार त्यागी की यह कविता श्रद्धांजलि स्वरुप कितनी सार्थक है कि,

‘मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल मैं जब भी,
कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्‍त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो।
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।’

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