राजस्थान में आसान नहीं वसुंधरा राजे की राह, क्या है भाजपा के मन में?
-सोमवार को मुख्यमंत्री का चेहरा कोहरे से बाहर आ सकता है
-ठिठुरते नेताओं को मुख्यमंत्री का चेहरा ही गर्मा सकता है
जयपुर। राजस्थान विधानसभा चुनाव के परिणाम 3 दिसंबर को ही आ गए थे। यहां 199 सीटों पर हुए चुनाव में 115 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बावजूद भाजपा ने एक हफ्ते के बाद भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर सस्पेंस बरकरार रखा है। अब माना जा रहा है कि सोमवार को मुख्यमंत्री का चेहरा कोहरे से बाहर आ सकता है। भले ही राजनीति मुख्यमंत्री को लेकर गर्म हो लेकिन मौसम की ठंडक से ठिठुरते नेताओं को कोहरे बाहर निकला मुख्यमंत्री का चेहरा ही गर्मा सकता है। हालांकि क्या वसुंधरा राजे की राह मुश्किल है?, क्या है भाजपा के मन में? यह सोमवार को ही साफ होगा।
इसकी कई बड़ी वजहें हैं। इसमें जो सबसे बड़ा कारण है वह वसुंधरा राजे सिंधिया कि राजनीतिक बिसात है जिसे उन्होंने दिल्ली से लेकर राजस्थान तक बिछा रखा है। वैसे तो मुख्यमंत्री की रेस में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के अलावा महंत बालक नाथ, किरोड़ीमल मीणा और दिया कुमारी का नाम भी चल रहा है। भाजपा नेतृत्व के सामने वसुंधरा राजे एक ऐसे नेता के रूप में खड़ी हो गई हैं जिन्हें पार्टी महत्व भी नहीं देना चाहती और किनारे भी नहीं लगाना चाहती है। खबर है कि वसुंधरा राजे के अलावा किसी और नेतृत्व को राजस्थान की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही है। इसीलिए मुख्यमंत्री के चुनाव में देरी हो रही है। इसकी वजहों को समझिए।
क्या पार्टी पर दबाव की राजनीति कर रही हैं वसुंधरा राजे?
सूत्रों की माने तो 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद से केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ बगावती तेवर अपनाने वाली वसुंधरा अब दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। वह मुख्यमंत्री पद की दावेदारी नहीं छोड़ना चाहतीं। राजे पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा से तो मिल रही हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह तक भी अपना संदेश पहुंचाने की जुगत में लगी हैं। हालांकि लाल कृष्ण आडवाणी जैसे पार्टी के पर्याय माने जाने वाले नेताओं को सलाहकार मंडली में शामिल करने वाली मोदी-शाह की जोड़ी वसुंधरा राजे को बहुत अधिक वैल्यू देने के पक्ष में नहीं है। सूत्रों ने बताया है कि केंद्रीय नेतृत्व से लगातार खफा रहने वाली वसुंधरा राजे को अब पार्टी राजस्थान में मुख्यमंत्री के पद से परे रखना चाहती है।
शिवराज सिंह चौहान की तरफ वसुंधरा ने नहीं किया इंतजार
जिस तरह से वसुंधरा राजे राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री रही हैं ठीक उसी तरह से मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रहे हैं। वहां भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर सस्पेंस बना हुआ है लेकिन शिवराज सिंह चौहान जीतने के बाद पार्टी के साथ बने हुए हैं और ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिससे केंद्रीय नेतृत्व को गलत संदेश जाए। दूसरी ओर राजस्थान चुनाव में पार्टी की जीत के बाद से लगातार बीजेपी के विधायकों के वसुंधरा राजे से मिलने का सिलसिला जारी रहा है। पहले बताया गया की 20 बीजेपी विधायक वसुंधरा राजे से मिलने उनके घर गए हैं, उसके बाद संख्या 25 हुई और आखिर में 70 विधायकों के वसुंधरा राजे से मिलने का दावा किया गया।
वसुंधरा के बेटे पर विधायकों को रिसोर्ट में ले जाने का आरोप
यह भी दावा किया गया कि वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह ने अपने समर्थक विधायकों को रिसोर्ट में लेकर रखा जिससे केंद्रीय नेतृत्व के बीच बहुत गलत संदेश गया है। मध्य प्रदेश में भी अगर शिवराज सिंह चौहान चाहते तो अपने समर्थक विधायकों से मुलाकात कर सकते थे लेकिन उन्होंने संपर्क करने वाले सभी विधायकों से मिलने से मना किया और पार्टी के कदम का इंतजार करने को कहा। जबकि वसुंधरा ने 5 साल तक केंद्रीय नेतृत्व से लगभग दूरी बनाए रखने के बाद अब मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव बनाना शुरू किया है जो केंद्रीय नेतृत्व करने के मूड में नहीं है।
क्या वसुंधरा के प्रभाव से मुक्त होना चाहती है भाजपा?
दूसरी बात यह है कि भाजपा ने जब प्रचंड बहुमत से मध्य प्रदेश जीत ली है तो वह वसुंधरा राजे से हर हाल में छुटकारा चाह रही है। यह उनके प्रभाव से मुक्त होने का बेहतरीन मौका है। 2018 के बाद से वसुंधरा राजे को मनाने की तमाम कोशिशें हुईं। केंद्र में शामिल होने का ऑफर दिया गया लेकिन वह नहीं मानीं। उनके अड़ियल रुख की वजह से केंद्रीय नेतृत्व ने अपने विश्वस्त चेहरों को राज्य में सेट करने की जुगत लगाई। राजस्थान के चुनाव में कई सांसदों ने जीत दर्ज की है जो पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बेहद खास हैं। ये विधानसभा से लेकर मंत्री बनने पर कैबिनेट तक की बैठकों में उस भरोसे का निर्वहन करेंगे। ऐसे में अगर वसुंधरा की जिद कहीं सफल भी होती है तो दिल्ली के ये नेता हमेशा राह में रोड़ा बने रहेंगे जो सरकार के लिए मुश्किल होगा।
पार्टी पर अपने प्रभाव का दबाव नहीं बनाने वाले नेता को प्राथमिकता
2023 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की प्रचंड जीत के बाद 2024 में पीएम मोदी की वापसी सुनिश्चित करना ही पार्टी का पहला लक्ष्य है। ऐसे में वसुंधरा की बहुत अधिक परवाह केंद्रीय नेतृत्व नहीं करेगा। सूत्रों ने बताया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी केंद्रीय नेतृत्व को पूरी छूट दी है। इसलिए मुख्यमंत्री के चुनाव में किसी ऐसे चेहरे को प्राथमिकता देने के बारे में सोचा जा रहा है जो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पार्टी पर दबाव की राजनीति नहीं कर सके। ऐसे चेहरों में महंत बालक नाथ, दिया कुमारी और किरोड़ीमल फिट बैठते हैं।
पुत्र मोह पड़ेगा वसुंधरा को भारी
वसुंधरा राजे को अपने बेटे दुष्यंत सिंह को भी राजनीति में सेट करना है जो उनकी सबसे कमजोर कड़ी के तौर पर देखा जा रहा है। उन्हें अपने बेटे के भविष्य की भी चिंता है और पार्टी लाइन से परे उठाया गया उनका हर एक कदम दोनों के राजनीतिक भविष्य पर खतरा साबित हो सकता है। इसलिए इस बार राजस्थान में वसुंधरा की नहीं बल्कि केंद्रीय नेतृत्व की ही चलेगी। बहुत हद तक संभव है कि मोदी-शाह की जोड़ी वसुंधरा राजे की नाराजगी और मनमानी से छुटकारा पानी के लिए किसी नए चेहरे को मुख्यमंत्री बनाए।
वसुंधरा की मनमानी भी बड़ी परेशानी
बता दें कि वसुंधरा राजे उन नेताओं में शामिल हैं जो पार्टी लाइन से परे मनमर्जी से सरकार चलाती हैं और उन्हें जो सही लगता है केवल वही करती हैं। इसकी वजह से 2013 से 2018 के दौरान भाजपा सरकार में उनके कई फैसलों और प्रशासनिक गतिविधियों की वजह से कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल लेनी पड़ी थी। केंद्रीय नेतृत्व भी वसुंधरा के ही रुख को स्वीकार करने को मजबूर था जबकि उनके कई फैसले नागवार गुजरे थे। इस बार पार्टी ऐसे किसी हालत को नहीं देखना चाहती। इसलिए वसुंधरा राजे में ऐसा कोई राज नहीं है जिसे लेकर चलने की मजबूरी केंद्रीय नेतृत्व की है। राजस्थान के लिए बीजेपी ने राजनाथ सिंह को पर्यवेक्षक बनाया है। उनके साथ सरोज पांडे और विनोद तावड़े को भी पर्यवेक्षक के जिम्मेदारी दी गई है। वे सोमवार तक भाजपा विधायकों के साथ बैठक कर मुख्यमंत्री के चेहरे पर निर्णय ले सकते हैं।