बांग्लादेश में हसीना सरकार के खिलाफ विपक्ष ढाका की सड़कों पर उतरें, इस्‍तीफें की मांग

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ढाका । बांग्लादेश में शनिवार को विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की रैली में हिंसा के बाद पार्टी के जनरल सेक्रेट्री मिर्ज़ा फख़रुल इस्लाम आलमगीर को गिरफ़्तार कर लिया गया। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की चीफ ख़ालिदा ज़िया भ्रष्टाचार के आरोप में पिछले पांच साल से जेल में बंद हैं।

तब से आलमगीर ही पार्टी का नेतृत्व कर रहे

शनिवार को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और सहयोगी जमात-ए-इस्लामी की रैली में जबरदस्त हिंसा हुई थी। इन दोनों दलों के लगभग एक लाख कार्यकर्ता राजधानी ढाका की सड़कों पर उतर पड़े थे। इस दौरान पुलिस के साथ उनकी जबरदस्त झड़प हुई. झड़प के दौरान एक पुलिसकर्मी और एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने पुलिस की इस कार्रवाई के विरोध में 31 अक्टूबर से 2 नवंबर तक नाकेबंदी का एलान किया है। बांग्लादेश में अगले साल जनवरी में चुनाव होने हैं. लेकिन बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का कहना है कि अवामी लीग की शेख हसीना सरकार के रहते निष्पक्ष चुनाव नहीं हो सकते। लिहाजा हसीना सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए.

उनकी मांग है कि अवामी लीग सरकार की जगह केयरटेकर सरकार बने और उसी के तहत चुनाव कराए जाएं। बांग्लादेश में विपक्ष और सत्तारुढ़ पार्टी अवामी लीग के बीच पिछले कुछ समय से टकराव काफी बढ़ गया है। बांग्लादेश नेशनल पार्टी के जनरल सेक्रेट्री आलमगीर शेख हसीना पर देश की हर अहम संस्था को खत्म करने और लोगों के अधिकार छीन लेने का आरोप लगाते रहे हैं।

विपक्षी दलों का कहना है बांग्लादेश में अवाम बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक अधिकारों के कुचले जाने से परेशान है। फिलहाल जेल में बंद बीएनपी चीफ ख़ालिदा ज़िया हसीना सरकार पर विरोधियों को दबाने और धांधली कर चुनाव जीतने का आरोप लगाती रही हैं। उन्होंने कहा है कि 2014 और 2018 में भी शेख हसीना की पार्टी ने चुनावों में धांधली कर सत्ता हथियाई थी। हालांकि शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग इन आरोपों को सिरे से नकारती रही है।

शेख हसीना और विपक्ष में टकराव का मुद्दा?

बीएनपी के जनरल सेक्रेट्री फख़रुल इस्लाम आलमगीर जिन्हें शनिवार के प्रदर्शन के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया। बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना बांग्लादेश में 2009 से ही सत्ता में हैं। उन्हें बांग्लादेश के सामाजिक और आर्थिक विकास को रफ़्तार देने और इसे एक उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश बनाने का श्रेय दिया जाता है. बांग्लादेश में लाखों लोगों को गरीबी से निकालने के लिए दुनिया भर में उनकी सरकार की तारीफ हुई है। लेकिन उन पर अधिनायकवादी रवैया अपनाने, अपने राजनीतिक विरोधियों और सरकार की आलोचना करने वालों को दबाने के आरोप हैं। शेख हसीना पर प्रेस और सरकार से असहमति रखने वालों को प्रताड़ित करने का भी आरोप है।

बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के सेंट्रल कमेटी के उपाध्यक्ष और निताई राय चौधरी की बेटी और पार्टी की मुखर नेता निपुण राय चौधरी के मुताबिक़ शेख हसीना ने बांग्लादेश को एक पार्टी का देश बना दिया है। उनका कहना है कि हसीना ने ‘हर तरह के राजनीतिक विरोध को कुचल कर रख दिया है. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर 40 लाख केस लाद दिए गए’ हैं।

वो पूछती हैं कि क्या ऐसे में बांग्लादेश में लोकतंत्र जिंदा रह सकता है?

वो कहती हैं कि शेख हसीना पिछले 15 साल से गलत तरीकों से सत्ता पर काबिज हैं. उनके मुताबिक़ बांग्लादेश में चुनाव से पहले न तो सरकार और न ही संसद भंग होती है. चुनाव शेख हसीना की सरकार के सत्ता में रहते होते रहे हैं. ताकि सरकार और चुनाव आयोग मिलकर विपक्षी दलों को हराने का हर इंतजाम करते रहें। 2018 के चुनाव में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सिर्फ सात सीटें जीत पाई थी।

हसीना को बैकफुट पर ला पाएगी बीएनपी?

शनिवार को प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल बीएनपी कार्यकर्ता

एक साल पहले बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने ढाका में एक और बड़ी रैली की थी. उसने निष्पक्ष कार्यवाहक सरकार का गठन कर चुनाव आयोग बनाने, ईवीएम हटाने और सभी धार्मिक नेताओं के ख़िलाफ़ मुकदमे हटाने का मांग की थी. अपनी मांग के समर्थन में बीएनपी के सभी सांसदों ने संसद से इस्तीफा दे दिया था।

बीएनपी की इस रैली में भारी भीड़ देख कर लग रहा था कि उसने हसीना सरकार को बैकफुट पर ला दिया है. लेकिन इसका वो कोई बड़ा राजनीतिक फायदा नहीं ले पाई है. दरअसल पिछले एक दशक के दौरान बीएनपी संकट में घिरी रही है।

भ्रष्टाचार के मामले में ख़ालिद ज़िया के जेल में होने की वजह से नेतृत्व संकट और जमात-ए-इस्लामी से गठजोड़ ने इसे जनता में अलोकप्रिय बना दिया था। यही वजह है पिछले 15 साल से पार्टी एक भी चुनाव नहीं जीत सकी है। हालांकि बीएनपी का आरोप है कि शेख हसीना की पार्टी धांधली कर चुनाव जीतती आ रही है। जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश मुक्ति युद्ध की विलेन मानी जाती है.उस पर पाकिस्तान की सेना से गठजोड़ के जरिये बांग्लादेश के स्वतंत्रता संघर्ष को नुकसान पहुंचाने का भी आरोप है। इस आरोप की वजह से पार्टी को सेक्युलर वोटरों का गुस्सा झेलना पड़ा है. लिहाजा वो लंबे समय से सत्ता से बाहर है. बीएनपी चीफ ख़ालिदा ज़िया पर विदेशी दान की रकम में गबन के आरोप भी लग चुके हैं। साथ ही उनके बेटे तारिक रहमान 2004 में हसीना की हत्या करवाने के आरोप में मिली सजा के बाद लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं।

इन दोनों की गैर मौजूदगी ने पार्टी को कमजोर कर दिया

इधर, कोरोना महामारी के बाद बांग्लादेश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था को मुद्दा बना कर बीएनपी ने हसीना सरकार के ख़िलाफ़ नए सिरे से जोर लगाने की कोशिश की थी। लेकिन इसमें वो खास सफल नहीं हो पाई. उस समय आईएमएफ ने बांग्लादेश के लिए 4.5 अरब डॉलर का बेलआउट पैकेज मंजूर कर लिया इससे हसीना सरकार पर बीएनपी का दबाव कमजोर हो गया। इसके बाद एस ए आलम ग्रुप के मामले में भी बीएनपी ने हसीना सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की थी. एस आलम ग्रुप बांग्लादेश के सबसे बड़े कारोबारी समूहों में से एक है. शेख हसीना की अवामी लीग के एक नेता के नजदीकी इस ग्रुप को इस्लामी बैंक से भारी लोन दिलवाने का आरोप लगा था। इस ग्रुप की इस बैंक में अलग-अलग कंपनियों के जरिये 26 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी है। ग्रुप पर आरोप लगा कि उसने इस्लामी बैंक से लोन लेकर विदेश में रियल एस्टेट सेक्टर में निवेश किया था. शेख हसीना सरकार ने इस मामले की जांच के आदेश दिए थे। लेकिन इस मामले को लेकर भी हसीना सरकार पर ज्यादा दबाव नहीं बन सका।

सरकार का समर्थन घट रहा है?

शनिवार को बीएनपी की रैली में जिस तरह लोग जुटे उसके बाद ये पूछा जा रहा है कि क्या इस बार ख़ालिदा ज़िया की पार्टी सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब हो सकती है। बीबीसी बांग्ला सेवा के संवाददाता शुभज्योति घोष कहते हैं,”इस बार हालात दूसरे हैं. 2014 में बीएनपी कार्यकर्ताओं ने जो हिंसा की थी वो चुनाव के बाद हुई थी. उस समय चुनाव रद्द कराने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई लेकिन इस बार बीएनपी चुनाव से पहले प्रदर्शन कर रही है. इस बार एक सूत्री एजेंडा ये है कि सरकार इस्तीफा दे और चुनाव एक केयरटेकर सरकार के अधीन हो.”

वो कहते हैं,”ये पता नहीं है कि सरकार इस दबाव के आगे कितना झुकेगी, क्योंकि सरकार ने केयरटेकर सरकार के प्रावधान को संविधान से ही हटा दिया है. हालांकि शेख़ हसीना के सामने इस बार जोखिम ज्यादा है. अवाम में हसीना सरकार का समर्थन घट रहा है.”

अमेरिका के साथ वीजा विवाद और इसका असर

इस साल अमेरिका ने बांग्लादेश के लिए एक नई वीजा पॉलिसी का एलान किया था,जिसमें बांग्लादेश के उन अधिकारियों को वीजा न देने का फैसला किया गया था,जिनके अपने देश के चुनाव में अड़चनें पैदा करने की आशंका है। अमेरिकी सरकार ने बांग्लादेश के सुरक्षाबल रैपिड एक्शन बटालियन और छह सुरक्षा अधिकारियों पर भी प्रतिबंध लगाया था। एइन प्रतिबंधों के कारण इन लोगों को अमेरिका का वीज़ा देना बंद कर दिया गया था।

साथ ही अमेरिका में इनकी संपत्तियों को भी जब्त करने का एलान किया गया था. अमेरिकी सरकार का कहना था कि रैपिड एक्शन बटालियन पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप हैं। उस समय बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमिन ने अमेरिका पर ही निशाना साधा था। उन्होंने कहा था, “आप कह रहे हैं कि 10 सालों में 600 लोग ग़ायब हुए हैं, लेकिन आपके देश (अमेरिका) में हर साल 60 लाख लोग ग़ायब हो जाते हैं लेकिन अमेरिकी सरकार को नहीं पता है कि यह कैसे होता है.”

सवाल ये है कि क्या अमेरिका की वीजा पॉलिसी और पश्चिमी देशों की बांग्लादेश नीति का मौजूदा हसीना सरकार पर दबाव दिखेगा। शुभज्योति घोष कहते हैं, “अमेरिका और पश्चिमी देशों का बांग्लादेश पर खासा दबाव है. बांग्लादेश के लिए अमेरिका ने नई वीजा नीति का एलान किया है. मानवाधिकार के सवाल पर दूसरे पश्चिमी देशों का भी दबाव है. बांग्लादेश के नेताओं और पॉलिसी मेकर्स के अमेरिकी में हित हैं. उनके परिवार के सदस्य वहां रहते हैं। वो कहते हैं, “बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का मौजूदा आंदोलन सफल होगा या नहीं, ये कहना मुश्किल है. लेकिन इस बार वो अकेले नहीं है. उसके साथ पश्चिमी ताकतें भी हैं. वो भी बांग्लादेश सरकार पर असर डाल रही हैं।

चुनाव में किसका दांव भारी

बीएनपी को जिस तरह से घर के अंदर जनता के एक वर्ग और पश्चिमी देशों का साथ मिल रहा है उससे हसीना सरकार पर दबाव बढ़ रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहा है क्या अगले साल होने वाले चुनाव में नतीजे उसके ख़िलाफ़ जाएंगे? इस बारे में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर और बांग्लादेश मामलों के विशेषज्ञ संजय भारद्वाज से बात की। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में चुनाव में पारदर्शिता का सवाल लगभग तीन दशक पुराना है. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का रिकार्ड भी चुनाव में धांधली का रहा है. लेकिन अब वो विपक्ष में है और केयरटेकर सरकार के तहत निष्पक्ष चुनाव की मांग कर रही है। क्या इस समय हालात ऐसे हैं कि बीएनपी का आंदोलन एक बड़ा सत्ता विरोधी आंदोलन बन जाएगा और अगले साल होने वाले चुनाव में शेख हसीना सरकार को इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा। संजय भारद्वाज कहते हैं,”बांग्लादेश में जनता अवामी लीग सरकार से परेशान नहीं है. हसीना सरकार का आर्थिक प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है. बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय से भी ज्यादा अच्छी हो चुकी है. आर्थिक और सामाजिक विकास के कई पहलु ऐसे हैं, जहां बांग्लादेश काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। संजय भारद्वाज के मुताबिक़,”हसीना सरकार के शासनकाल में कई बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे हुए हैं. रेलवे, मेट्रो और दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में बांग्लादेश ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया है.”यहां चीन, भारत और जापान का निवेश बढ़ता जा रहा है. बांग्लादेश के लोगों का मानना है कि कोरोना से अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा था, उससे हसीना सरकार ने उबार लिया है.पश्चिमी देश लोकतंत्र और मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर बांग्लादेश सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इससे हसीना की पार्टी को चुनाव में कोई खास नुकसान होगा.”

भारत-बांग्लादेश संबंध

नरेंद्र मोदी सरकार के शासन में बांग्लादेश से भारत के संबंध काफी अच्छे रहे हैं. ये बात किसी से छिपी नहीं है। भारत की नज़र में शेख हसीना ‘इस्लामी ताकतों और बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों को बढ़ावा देने की पाकिस्तान की कोशिशों के ख़िलाफ़ डट कर खड़ी हैं.’उन्होंने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों ( हिंदू यहां सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं. उनकी आबादी लगभग आठ फीसदी है) के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को सफलतापूर्वक रोका है। भारत में जब 2019 में नागरिकता संशोधन कानून लाया गया था तो बांग्लादेश ने इस पर आपत्ति जताई थी. इसके बावजूद हसीना सरकार ने बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा पर कड़ा रुख अपनाया। दूसरी ओर, 2001 से 2006 तक की खालिदा जिया सरकार में भारत के बांग्लादेश के साथ अनुभव अच्छे नहीं रहे थे।

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