शिक्षा वह जो युवाओं में “स्व” को समझने की क्षमता पैदा करे
किसी भी राष्ट्र को मजबूत बनने के लिए उस राष्ट्र को मजबूत युवा कंधों की आवश्यकता होती है। पर क्या आज की शिक्षा प्रणाली इस बात को सीखाने में सक्षम है। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली के मुख्य उद्देश्य कुछ और है पर आज जिस प्रकार के युवाओं का हम निर्माण होते हुए देख रहे हैं उससे प्रतीत होता है की कहीं कोई खाई है जो दिन प्रतिदिन गहरी होती जा रही है। अखबारों में रोज-रोज छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्या की खबरें एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह है और हम सबके लिए चुनौती भी है। राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक विकास, सामाजिक सामंजस्य और शिक्षा द्वारा सर्वांगीण विकास राष्ट्र निर्माण के मुख्य कारक है।
किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा और शांति सर्वोपरि है इसे बनाए रखने के लिए राजनीतिक स्थिरता होना अति आवश्यक है। इसी क्रम में किसी भी राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन, ऊर्जा स्त्रोत आदि अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं, जिससे नागरिकों का पोषण होता है और जीवन स्तर में सुधार होता है। इसी के साथ-साथ विभिन्न जाति-संप्रदाय और धर्म के लोगों के बीच सामंजस्य और सौहार्द की भावना सामाजिक सामंजस्य को संतुलित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। और इन सबसे महत्वपूर्ण है किसी भी राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली जो इन सभी कारकों की धुरी है। यदि हम मजबूत राष्ट्र की परिकल्पना करते हैं तो सबसे पहले हमें वहां के नागरिकों को ज्ञानयुक्त तथा कौशल युक्त बनाना होगा। ये सभी कारक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भारतीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत मनुष्य का सर्वांगीण विकास शिक्षा का परम उद्देश्य है। यानी शिक्षा वह जो किसी भी छात्र को मनसा, वाचा, कर्मणा प्रबुद्ध बनाएं।
शिक्षा वह जो छात्र को कर्तव्यनिष्ठ, सदाचारी, उदार, ज्ञानवान, अनुशासित और मेधावी बनाएं। शिक्षा वह जो “स्व” को समझने की क्षमता पैदा करे। शिक्षा वह जो समाज में व्याप्त समस्याओं के प्रति सजग बनाएं। शिक्षा वह जो छात्रों को सहनशील बनाएं और तर्कवान बनाएं। छात्रों की मेधा, बुद्धि को पुष्ट करने का उत्तरदायित्व केवल शिक्षकों का है पर क्या आज के शिक्षक छात्रों को जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार कर रहे हैं। आज केवल भौतिकतावाद की शिक्षा दी जा रही है। विषय संबंधी ज्ञान को ठूँसा जा रहा है। नीट, जेईई और यूपीएससी सिविल परीक्षा को जीवन का अंतिम ध्येय बनाकर रख दिया है। क्या इस प्रकार का वातावरण तैयार करना उचित है। छात्रों पर मानसिक दबाव है की या तो करियर के शीर्ष पर पहुँचों नहीं तो आपको नाकारा घोषित कर दिया जाएगा। भौतिकवाद की इस हवा में हम केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु निरंतर लगे हुए हैं तथा सुख साधनों को भोगने के लिए तत्पर है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि आज हर व्यक्ति अपने जीवन से असंतुष्ट है क्योंकि और का तो छोर होता ही नहीं।
शिक्षा को हमने मात्रा जीविकोपार्जन का माध्यम मात्र बनाकर रख दिया है। जिसका घातक परिणाम आज छात्रों में बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है। स्कूली शिक्षा के दौरान क्या हम छात्रों में इतने भी चारित्रिक गुणों का निर्माण नहीं कर सके कि जब वह जीवन के समक्ष आने वाली चुनौतियों से रूबरू हो तो डटकर उसका सामना कर सके ना कि अपना जीवन समाप्त करने का निर्णय लें। क्या हमने एक ऐसे राष्ट्र निर्माण की कल्पना की थी जिसके युवाओं की भुजाओं में दम नहीं, जिसके युवाओं का मनोबल इतना कमजोर है कि जरा सी असफलता से उनके कदम डगमगा जाते हैं और जो चुनौती का सामना करने की बजाय व्यसनों के जाल में फंस जाते हैं। इन सभी समस्याओं का एकमात्र उपाय नीतिगत और मूल्यों पर आधारित शिक्षा है जिससे किसी राष्ट्र के पतन को रोका जा सकता है। शिक्षकों और शैक्षिक संस्थानों को एक साथ मिलकर इस जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा। विश्व गुरु कहलाए जाने वाले देश में शिक्षा इतनी लचर हो गई है कि छात्र जीवन समाप्त कर रहे हैं।
क्या अध्यापक स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं कि आज मैं छात्रों को ऐसा क्या संदेश दूं जिसके उपरांत मेरे छात्र राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सके। शिक्षक को अपने एक-एक छात्र के विषय में व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिए। युवा शक्ति असीम ऊर्जा से भरी होती है जरूरत है तो उसे शक्ति को अनुशासित करके राष्ट्र निर्माण की उत्तरोत्तर उन्नति में लगाया जाए। अधिकतर युवा मानसिक दबाव में रहते हैं क्योंकि उन्हें उनकी डिग्री के अनुरूप नौकरी प्राप्त नहीं होती और यदि नौकरी मिल भी जाए तो आमदनी पर्याप्त नहीं होती। लाखों की संख्या में छात्र अपना अमूल्य समय सिविल सेवा की परीक्षाओं या इस प्रकार की अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में लगा देते हैं जिसमें सफलता प्राप्त न होने के कारण वह मानसिक तनाव में रहते हैं और उम्र निकल जाने के कारण उनके पास सीमित विकल्प रह जाते हैं।
अनमने मन से यह युवा जिस भी नौकरी को करते हैं उसके साथ पूर्ण न्याय नहीं कर पाते। सरकार और शैक्षिक संस्थानों को ऐसे उपाय करने होंगे जिससे इस युवा शक्ति का सदुपयोग देश हित में किया जा सके। सरकार इन्हें स्कूली शिक्षा के दौरान ही हरित धरा हेतु वृक्षारोपण अभियान के कार्यों में, नदियों की साफ सफाई, शेल्टर होम्स या जूविनाइल जेल आदि में शिक्षक और परामर्शदाता का कार्य, धार्मिक स्थलों में स्वच्छता तथा व्यवस्था बनाए रखने हेतु, फौज की तीनों कमांड में आवश्यकता अनुसार इनके कौशल को इनकी ऊर्जा का सदुपयोग कर सकती है। इससे यह युवा समाज निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकेंगे। उनके कार्यों को मीडिया के माध्यम से सबके सामने लाया जाए और पुरस्कृत भी किया जाए इससे तमाम युवाओं की रक्त वाहिकाओं में देश प्रेम की भावना का संचार होगा। छात्र स्वयं भी अपना विश्लेषण करें की वे अपने आप से क्या अपेक्षा रखते हैं। उन्हें दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ अपनी व्यवहारगत विसंगतियों को दूर करने का प्रयास करना होगा।
चकाचौंध से भरी इस दुनिया में खुद का अस्तित्व तलाशने के लिए अपनी मदद स्वयं करनी होगी और साथ ही ऐसे युवाओं से प्रेरणा लेनी होगी जिन्होंने जीवन की कठिन से कठिन परिस्थिति में भी हार नहीं मानी और तमाम संसाधनों की कमी के बावजूद अपने ध्येय के प्रति प्रतिबद्ध रहे और उसे प्राप्त किया। आवश्यकता है तो सही मार्गदर्शन देने की और निरर्थक जीवन को सार्थक जीवन में बदलने की। इससे बेहतर मार्ग कोई नहीं। राष्ट्रहित में दी गई शिक्षा से मेधावी, मनस्वी, तेजस्वी और यशस्वी छात्र युवा शक्ति तैयार होगी जो अपने विवेक, बुद्धिबल, मेधा और अपने पुरुषार्थ से किसी भी परिस्थिति का सामना करने में सक्षम होंगे।