क्या है सल्लेखना, मरण से पहले ही क्‍यों ‘त्याग’ देते हैं जैन संत; इसे हाई कोर्ट ने बताया था अपराध

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नई दिल्‍ली । जैन मुनि आचार्य विद्यासागर महाराज ने छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में रविवार को देह त्याग दी। उन्होंने प्राण त्याग करने के लिए ‘सल्लेखना’ प्रथा का पालन किया। बता दें कि जैन धर्म में यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है।

जब किसी संत को इस बात का भान हो जाता है कि उनका अंतिम समय आने वाला है तो मौत से पहले ही वह अपने शरीर के प्रति सारे मोह का त्याग कर देते हैं। वे अन्न-जल का त्याग करके समाधि लगा देते हैं। इसी अवस्था में उनके प्राण छूट जाते हैं।

क्या है सल्लेखना का मतलब

धार्मिक जानकारों के मुताबिक सत् और लेखना से मिलकर सल्लेखना शब्द बना है। इसका मतलब होता है जीवन के कर्मों का सही लेखा-जोखा। जब किसी जैन संत को लगता है कि उनके बुढ़ापे या बीमारी का कोई समाधान नहीं है तो वह खुद ही प्राण त्याग करने के लिए इस प्रथा का उपयोग करते हैं। इसे साधु मरण भी कहा जाता है। आचार्य श्री विद्यासागर ने प्राण त्याग करने से पहले आचार्य पद का भी त्याग कर दिया था और अपने शिष्य निर्यापक श्रमण महाराज को उत्तराधिकारी बना दिया।

इस प्रथा को संथारा भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस पद्धति से व्यक्ति अपने कर्मों के बंधन को कम कर देता है जिससे वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यह अपने जीवन के अच्छे बुरे कर्मों के बारे में विचार करने ईश्वर से क्षमा याचना करने का भी एक तरीका है। इसके लिए गुरु से अनुमति लेना होता है। अगर गुरु नहीं जीवित हैं तो सांकेतिक रूप से उनसे अनुमति ली जाती है। यह शांतचित्त होकर मृत्य के सच को स्वीकार करने की प्रक्रिया है।

राजस्थान हाई कोर्ट ने बताया आत्‍महत्‍या

राजस्थान हाई कोर्ट ने संथारा यानी सल्लेखना प्रथा को आत्महत्या बता दिया था। कोर्ट नेन कहा था कि सल्लेखना करने वाले और इसके लिए प्रेरित करने वाले लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए। इसके बाद जैन संतों मं गुस्ता था। नौ साल तक सुनवाई के बाद राजस्थान हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 20 दिन बाद ही मात्र एक मिनट में फैसला बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सल्लेखना को लेकर राजस्थान हाई कोर्ट का फैसला रद्द कर दिया और इसकी अनुमति दे दी। फैसले में कहा गया कि जनै समुदाय संथारा का अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र है।

राजस्थान में सबसे ज्यादा इसका अभ्यास होता

जानकारों का कहना है कि हर साल करीब 200 से 300 लोग इस अभ्यास के जरिए शरीर त्याग करते हैं। राजस्थान में सबसे ज्यादा इसका अभ्यास होता है। बात 2006 की है, कैंसर से जूझ रही एक महिला विमला देवी को जैन मुनि ने संथारा की अनुमति दी थी। 22 दिनों तक अन्न जल त्याग करने के बाद उनकी मौत हो गई। इसके बाद हाई कोर्ट में एक याचिका फाइल की गई जिसमें इस प्रथा को आत्महत्या ठहराने की मांग की गई। हाई कोर्ट ने भी कह दिया कि यह प्रथा सती प्रथा की तरह है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा का अनुमति दी।

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