तमसो मा ज्योतिर्मय’ का पावन संदेश देता मकर संक्रांति पर्व

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भारत देश विभिन्न धर्मो, त्योहारों का देश है ।हमारी संस्कृति में त्योहारों, मेलो, उत्सव और पर्वों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । ये त्योहार जहा एक और हमे हमारीपरम्परा ,इतिहासऔर विरासत से परिचित कराते है वही दूसरी और हमारे जीवन में एक नई ऊर्जा, तरंग और उत्साह का संचार करते हैं ।इसी के साथ समाज में प्रेम ,भाईचारे और सहिष्णुता को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

‘तमसो मा ज्योतिर्मय’ का साक्षात दर्शन कराते, अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने का संदेश देता ऐसा ही एक पर्व है मकर संक्रांति का। मकर संक्रांति का पर्व प्रत्येक वर्ष जनवरी माह की 14 या 15वीं तारीख को ही मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करते हैं ।मकर संक्रांति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारंभ होती है। यह संपूर्ण त्यौहार सूर्य को समर्पित है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में दक्षिणायान को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता और अंधकार का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मक और उजाले का प्रतीक माना गया है। चूंकि इस दिन सूर्य की उत्तरायण गति प्रारंभ होती है इसलिए मकर संक्रांति पर सूर्य के राशि परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है और संपूर्ण भारत में यह दिन विभिन रूपो में मनाया जाता है।
सूर्य हमारी ऊर्जा का, प्रकाश का मूल स्रोत है अतः इस दिन विविध रूपों में सूर्य देव की आराधना, उपासना और पूजन कर उनके प्रति अपने आभार या कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हैं। इस दिन स्नान, दान तर्पण आदि विभिन्न धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व होता है।

श्रीमद्भागवत और देवी पुराण के अनुसार शनि महाराज का अपने पिता से बैरभाव था क्योंकि सूर्य देव ने उनकी माता छाया को अपनी दूसरी पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज से भेदभाव करते देख लिया था। इसी बात से सूर्य देव नाराज हो गये और उन्होंने संज्ञा और उसके पुत्र शनि को अपने से अलग कर दिया । अपने प्रति सूर्य देव के इस कृत्य से शनि और छाया ने सूर्य देव को कुष्ठ रोग का श्राप दे दिया था।

पिता सूर्य देव को इस रोग से पीड़ित देखकर यमराज बहुत दुखी हुए और यमराज ने सूर्य देव को इस रोग से मुक्ति दिलाने के लिए कठिन तपस्या की। सूर्य ने क्रोधित होकर शनि महाराज के घर कुंभ जिसे शनि की राशि कहा जाता है उसे जला दिया, इससे शनि और उनकी माता छाया को कष्ट भोगना पड़ रहा था। यमराज ने अपनी सौतेली माता और भाई शनि को कष्ट में देखा और उनके कल्याण के लिए पिता सूर्य को बहुत समझाया कि वे क्रोध छोड़ दे। तब जाकर किसी तरह सूर्यदेव का क्रोध शांत हुआ और वे शनि के घर कुंभ में पहुंचे। कुंभ राशि में जब सूर्य पहुंचे तो सब कुछ जला हुआ था और शनि देव के पास तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने काले तिल से सूर्य देव की पूजा अर्चना की। शनि की इस पूजा से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि शनि का दूसरा घर मकर राशि मेरे आने पर धन-धान्य से भर जाएगा इसीलिए इस दिन तिल दान करने की परंपरा है । तिल दान के कारण ही शनि को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था अन्तः शनि देव को तिल बहुत प्रिय है। इसीलिए मकर संक्रांति पर तिल से सूर्य और शनि की पूजा का विधान प्रारंभ हुआ।
इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर स्वयं जाते हैं और शनि देव मकर राशि के स्वामी हैं इसीलिए इसे मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। एक और पौराणिक मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन ही गंगा जी भागीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में जाकर मिली थी। एक मान्यता यह भी है की मां यशोदा ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और मकर संक्रांति का ही दिन था तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ। महाभारत काल में भीष्म पितामह जब अर्जुन के वाणों से घायल हुए थे तब सूर्य दक्षिणायन में थे। तब उन्होंने अपनी देह त्यागने के लिए सूर्य के उतरायण में आने का इंतजार किया और इस मकर संक्रांति के दिन अपने प्राण त्यागे।

मकर संक्रांति के पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होते हैं अतः भारत में रातें बड़ी और दिन छोटे होते हैं और सर्दी का मौसम होता है लेकिन इस दिन से सूर्य उत्तरी गोलार्ध की ओर आना प्रारंभ करते हैं इसलिए रातें छोटी दिन बड़े होने लगते हैं और गर्मी का मौसम प्रारंभ हो जाता है।

यह पर्व पंजाब और जम्मू कश्मीर में लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन पंजाबी लोग अलाव जलाकर उसके चारों ओर प्रसिद्ध भांगड़ा नृत्य कर अपने उत्साह और खुशी को प्रकट करते हैं। इस अलाव में अग्नि को तिल, गुड़ मूंगफली, मक्का समर्पित करते हैं। दक्षिण भारत में इसे पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल का अर्थ है विप्लव या उफान । फसल कटाई की खुशी में तमिल हिंदुओं के बीच चार दिन तक यह पोंगल पर्व मनाया जाता है। इस दिन तमिल परिवारों में दूध और चावल के मिश्रण से खीर नाम का प्रसाद बनाया जाता है इसी को पोंगल कहा जाता है ।

उत्तर भारत में इसे ‘दान का पर्व’ माना जाता है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती नदियों के संगम पर हर साल एक महीने तक लगने वाले माघ मेले की शुरुआत मकर संक्रांति के दिन से ही होती है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी(दाल व चावल का मिश्रण) के नाम से जाना जाता है और इस दिन खिचड़ी खाने, खिचड़ी का दान देने का अत्यधिक महत्व होता है। गोरखपुर में गोरखधाम स्थान पर खिचड़ी मेले का आयोजन किया जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, नमक व तेल आदि चीज दूसरी सुहागिनों को दान करती हैं। यही परंपरा राजस्थान और मध्य प्रदेश के भी कुछ स्थानों पर भी है जहां सुहागन महिलाएं सुहाग की वस्तुएं पूजन और संकल्प कर 14 ब्राह्मण या स्त्रियों को प्रदान करती हैं ।गुजरात में मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग से जुड़ा हुआ भव्य महोत्सव जिससे ‘पतंगोत्सव’ कहा जाता है आयोजित किया जाता है। भारत के अन्य प्रमुख शहरों में भी ‘काटा है’ की आवाज के साथ इस दिन पतंग बाजी के हुनर देखने को मिलते हैं।
इस प्रकार से स्वयं में विभिन्न धार्मिक मान्यताओं को समेटे मकर संक्रांति का का पर्व हमे अंधकार से प्रकाश की और नकारात्मकता से सकारात्मक ता की और बढने का संदेश देता है।

-प्रोफेसर मनीषा शर्मा
शिक्षाविद व साहित्यकार
डीन पत्रकारिता व जनसंचार एवं व्यावसायिक शिक्षा संकाय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विवि, अमरकंटक

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