*जिन्होंने स्त्री के शिक्षा और हक़ के लिए लड़ते-लड़ते अपना जीवन त्याग दिया, भारत की सबसे पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का आज है जन्मदिन:*
ज़रा कल्पना कीजिये कि जिस दौर में भारत मे शिक्षा का हक़ सिर्फ़ उच्च वर्ग के पुरुषों के पास था उस दौर में स्त्रियों के शिक्षा के लिए लड़ना कितना कठिन रहा होगा। आज स्त्रियां हर वर्ग में, हर दिशा में जा रही हैं, ऊंचे स्थानों पर हैं तो इसकी शुरुआत कहाँ से हुई होगी? किसने लड़ना शुरू किया होगा स्त्रियों के शिक्षा और उनके हक़ के लिए? जवाब है, ‘सावित्रीबाई फुले’। वही सावित्रीबाई फुले जिन्होंने स्त्रियों के लिए लड़ते-लड़ते और इस समाज को सुधारते-सुधारते अपना जीवन त्याग दिया। जिनपर पत्थर और गंदगियां फेंकी जाती थी लेकिन फिर भी वे अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ती रहीं। जिस सावित्रीबाई फुले को देश की पहली महिला शिक्षिका का दर्जा दिया जाता है, आज उनका जन्मदिन है।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक दलित परिवार में हुआ। उस वक़्त भारत मे बाल विवाह, जाती प्रथा, छुआ छूत जैसी कई प्रथाएं थीं। बाल विवाह प्रथा के कारण उनकी शादी 9 वर्ष की उम्र मे ही ज्योतिबा फूले (13 वर्ष)के साथ कर दी गयी। ज्योतिबा फूले उस वक़्त तीसरी कक्षा तक पढ़े थे लेकिन सावित्रीबाई फूले के पास शिक्षा नहीं थी। वे अपने पति ज्योतिबा फूले से ही पढ़ीं और स्त्रियों को पढ़ने पर जोर दिया। वे शिक्षा के महत्व को समझ चुकी थीं और अक्सर इसका जिक्र अपनी कविताओं में करती थीं।
ज़रा कल्पना कीजिये कि जहां आज भी कई जगह स्त्रियों को समाज के ठेकेदारों द्वारा चलाया जाता है, उन्हें अपने मन का नही करने दिया जाता है, तब उस वक़्त क्या स्थिति रही होगी जब कुछ लोग हमारे भविष्य के लिए लड़े होंगे। सावित्रीबाई फुले उन्हीं लोगों में से एक हैं, जिनके ऊपर पत्थर बरसाए जाते थे, मुँह पर गोबर लगा दिए जाते थे लेकिन वे फिर भी लड़ीं, अपने लिए ही नही बल्कि हमसब के लिए लड़ीं। आज हम ख़ुद के अधिकारों की जब मांग करते हैं और हमे दबा दिया जाता है तो उस वक़्त क्या स्थिति रही होगी, ज़रा सोचिए। उस वक़्त सावित्रीबाई ने लड़ना शुरू किया और उनको साथ मिला उनके हमसफ़र ज्योतिबा फुले का। जब वे विद्यालय पढ़ाने के लिए जाती थीं तब झोले में एक अतिरिक्त साड़ी रखकर जाती थीं क्योंकि उन्हें पता होता था कि रास्ते मे उनपर कचरें और गंदगियां फेंकी जाएगी।उन्होंने ज्योतिबा फूले के साथ मिलकर महज़ 17 वर्ष की उम्र में साल 1848 में पुणे में देश के सबसे पहले बालिका विद्यालय की स्थापना की। इसके बाद 17 अन्य विद्यालयों की स्थापना की। वे लड़ती रहीं समाज के ठेकेदारों से, वे खटकती रहीं रूढ़िवादी लोगों के नज़र में फिर भी अपने लक्ष्य से नहीं भटकीं।

उनके सामने एक और चुनौती थी, वो है उनका दलित होना। उनके दलित होने का ज़िक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि जिस वक्त ये स्त्रियों के शिक्षा और उनके हक़ के लिए समाज से लड़ रही थीं उस वक़्त समाज मे जाती प्रथा बहुत थी। शिक्षा का हक़ सिर्फ़ उच्च वर्ग के पुरुषों के पास होता था जिस वजह से उच्च वर्ग के लोग इनका विरोध करते थे। इन्होंने जाती प्रथा को ख़त्म करने के लिए लड़ाई लड़ी, साथ ही देश मे चल रहे छुआ-छूत, सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा विवाह जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ़ अपने पति के साथ मिलकर काम इन प्रथाओं को ख़त्म करने के लिए कदम बढ़ाया। 28 जनवरी 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने 24 दिसंबर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसंबर 1973 को कराया।
28 नवंबर 1890 को इनके पति ज्योतिबा फुले का देहांत हो गया जिसके बाद सत्यशोधक समाज की पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई पर आ गया। उन जिम्मेदारी को भी उन्होंने बखूबी निभाया और समाज को आगे बढ़ाती चली गईं। 10 मार्च 1897 को प्लेग द्वारा ग्रसित मरीज़ों की सेवा करते वक़्त सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग से ग्रसित बच्चों के कारण इन्हें भी प्लेग हो गया और इनकी मृत्यु हो गयी।
ऐसी महान स्त्री को हम सदा याद रखें और इनसे प्रेरणा लें। हम कल्पना करें कि आज जिस स्थिति में स्त्रियां हैं वो स्थिति पहले किसी रही होगी, किसने हमारे लिए लड़ा होगा, और हम पाएंगे कि सावित्रीबाई फुले का नाम सबसे पहले आएगा। देश की प्रथम शिक्षिका, जिन्होंने ख़ुद ही नहीं पढ़ा बल्कि देश की हर स्त्रियों के शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी। ज्योतिबा फुले जैसे पुरुष महान हैं, एक सच्चा हमसफ़र बनकर उन्होंने अपनी पत्नी का साथ दिया और समाज की सेवा की। उस महान स्त्री के जमदिन पर उन्हें शत-शत नमन।
आर्टिकल:- सचिन सिंह प्रभात
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